
हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस
ते नर जमपुर जाएंगे, सत भाषै रविदास।।
जा देखैै घिन ऊपजै, नरक कुण्ड में बास,
प्रेम भक्ति से ऊद्धरै परगट जन रैदास।।
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न,
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करै है प्रीत॥
रविदास मदिरा का पीजिए, जो चढ़ी चढ़ी उतराय
नाम महारस पीजिए, जो चढ़ नहीं उतराय।।
रेन गवाई सोय कर, दिवस गवायों खाय,
हीरा यह तन पाय कर कौड़ी बदले जाए।।
जात-पात के फेर में उरझी रहे सब लोग,
मनुष्यता को खात है, रविदास जात का रोग।।
क्या मथुरा क्या द्वारिका, क्या काशी हरिद्वार,
रविदास खोजा दिल अपना, ताऊ मिला दिलदार।।